Saturday, November 09, 2013

तन्हाई

अब तुमसे रोज़ तो मुलाक़ात नहीं हो पाती है, लेकिन
तुम्हारे हिस्से का वक़्त आज भी तन्हा ही गुज़रता है

याद है, तुम पीछे से चुपचाप आकर अपनी हाथों से मेरी आँखों को ढाँक दिया करती थी
ये आँखें आज भी उस स्पर्श को बेताब हैं, खुले रहकर बहुत आंसू इनसे बहता है

वो दुपट्टे में तेरे शीशे के चाँद जिनमें हम अपना चेहरा देखते थे
आईने तो कई हैं आज मेरे घर में, हमारे इक अदद दीदार की ख्वाहिश में हर एक तरसता है

वो गुलाब जो तुम्हारे बालों में शर्मा के लाल हो जाता था; मुस्कुराता, खिलखिलाता रहता था
आज बीमार है वो; पीला, उदास सा डाल पर, किसी के उसको चुराने का इंतज़ार करता है

वो चाय की गरम प्याली जिसकी हर चुस्की में तुम्हारी बातों और मुस्कान का मिठास घुला रहता था
आज पड़ा है किसी कोने में; असहाय, अनाथ सा, बस गिर कर टूट जाने की फ़रियाद करता है




साभार: सुयश अग्रवाल (शुरू की चंद पंक्तियाँ उन से उधार ली हैं)