Wednesday, July 30, 2014

क्यों हैं ऐसे हम

रुक जाता गर पैरों को बाँध पाती बेड़ियां 
देख लेता जो आँखों पर ना लगा होता पर्दा 
जलाता इक मशाल करने को उजाला 
ना कि वो जो ज़िन्दगियों के दिए बुझाता

क्या दे सकता हूँ मैं दोष?
उस देश को जिसे बचाना कर्त्तव्य समझता था
या उस धर्म को जो मेरा परिवार अपना मानता था
जिसने धकेल दिया मेरे जैसों को इस अनचाहे नरसंहार में 
और रोते बिलखते अनगिनत लोगों को मौत के अंधकार में 

या हूँ मैं दोषी जिसने एक बात भी ना कही
जिसने उठाये तो शस्त्र परन्तु गलती पर जिसकी ऊँगली ना उठी
जिसे देश था प्यारा और उसके देशवासी
जिसने सोचने की कोशिश नहीं की ज़रा सी
इंसानियत को ना बचा पाने की कीमत क्या होगी
उसके बारे में नहीं सोचा, बस आज की चिंता की
इतिहास के पन्नों में बस झांक देख लेता
नफरत ने कितनी की है भारी तबाही 
पर क्या करूँ मैं

रुक जाता गर पैरों को बाँध पाती प्रेम की बेड़ियां 
देख लेता जो आँखों पर ना लगा होता नफरत का पर्दा

साकेत रन्जन--