Wednesday, November 09, 2011

कर्त्तव्य


मांद में छुपा नहीं है, घात लगाये बैठा है
भूरी आँखें खुली हुई हैं, देख लिया हैं उसने उसे 
इंतज़ार है थोड़ा, बस कुछ पल की देरी, वो आएगा सामने 

उसकी भी किस्मत तो देखो
आज ही अपने घर, अपने परिवार से नाता तोड़ आया था
अकेले चल पड़ा था  अपने ज़िन्दगी के नए रास्तों को ढूँढने 
कुछ तो खफा था, कुछ खुद पर भरोसा था
आँखों में थे सपने, मन के किसी कोने में पर बैठा था हल्का सा भय
क्या जाने क्या होगा, ये वो कैसे जान सकता था
कुछ चमकता सा देख बढ़ चला, न जाने कैसी थी यह कौतूहलता 
कैसी थी वो चपलता, कैसा था वो अल्हड़पन 
जो भूल गया वो सब जो कभी किसी ने था सिखाया 

उसके हर कदम को देख रहा है वो
ह्रदय में कोई दुर्भावना नहीं, बस लक्ष्य को पाना चाहे वो
वो अकेला है, असहाय है, इन सब व्यर्थ के सोच में क्यों पड़े वो
आखिर ये भी तो है एक कर्त्तव्य, अपने कर्त्तव्य से कैसे मुंह मोड़े वो